समर्पण

परब्रह्म चैतन्य को, सच्चिदानंद परमात्मा को , जिसने दिव्य प्रसाद रूप ,
संस्कारी संतानें दीं , कृतज्ञ हूँ ,
कि संस्कारों ,सिद्धांतों और पूजा को , संतानों ने आचरण में उतारा।

सर्व 'व्यापक ' ब्रह्म तू , परमेश 'अनुभव ' गम्य है ,
दिव्य रूप प्रसाद दीं ,संताने अनुपम धन्य हैं ,
दिनमान 'प्राची' में उदित , दें विश्व को 'वैभव ' यहाँ ,
रामत्व का संबल महत है ,अन्यथा सम्भव कहाँ ?

आभार

श्री जॉन रिचर्ड्स का, जिनके अष्टावक्र गीता के अंग्रेजी अनुवाद को हमने
आम जिज्ञासुओं की सुविधा के लिए इस वेबसाइट में शामिल किया।
श्री रिचर्ड्स ने अपना प्रेरणादायी अनुवाद पब्लिक डोमेन में
(जनहितार्थ कॉपीराइट मुक्त) जारी किया था और उनसे प्रेरणा लेकर
यह काव्यानुवाद भी
पब्लिक डोमेन में जारी किया जा रहा है।

अष्टावक्र  गीता  सार

यह देह , मन ,बुद्धि ,अहम् भ्रम जाल किंचित सत नहीं ,
पर कर्म कर कर्तव्य वत्बिन चाह फल के , रत नहीं .[1]
अब तेरी चेष्टाएं सब प्रारब्ध के आधीन हैं
कर्म रत पर मन विरत , चित्त राग द्वेष विहीन हैं [ २ ]
पर रूप में जो अरूप है , वही सत्य ब्रह्म स्वरूप है
दृष्टव्य अनुभव गम्य जो , तेरे भाव के अनुरूप है. [ ३ ]
तू शुद्ध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चिन्मय आत्मा चैतन्य है .
बोध रूप अरूप ब्रह्म का , तत्व है तू धन्य है . [ ४ ]
यह तू है और मैं का विभाजन , अहम् मय अभिमान है ,
व्यक्तिव जब अस्तित्व में मिल जाए तब ही विराम है , [ ५ ]
निर्जीव होने से प्रथम , निर्बीज यदि यह जीव है
उन्मुक्त , मुक्त विमुक्त , यद्यपि कर्मरत है सजीव है . [ ६ ]
अनेकत्व से एकत्व का , जब बोध उदबोधन हुआ ,
बस उसी पल आत्मिक जीवन का संशोधन हुआ , [ ७ ]
विक्षेप मन चित , देह और संसार के निःशेष हैं ,
सर्वोच्च स्थिति आत्मज्ञान में आत्मा ही शेष है . [ ८ ]
ब्रह्माण्ड में चैतन्य की ही ऊर्जा है , विधान है ,
निर्जीव रह निर्बीज कर , यही मूल ज्ञान प्रधान है [ ९ ]

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अष्टावक्र गीता

पुरोवाक् अष्टावक्र विरक्तियों की गीता संहिता है . आध्यत्मिक उपलब्धियों में वैरागी चित्त अनिवार्य एवं प्रथम वचन बद्धता हैं। पूर्व जन्म की पात्रता और इस जन्म की मुमुक्षा के संयोग से ही आत्म ज्ञान होता है आत्म ज्ञानी सभी द्वंद्वों के पार एक रस हो जाता है। वह स्वभाव रहित आत्मा के स्वभाव के अनुरूप हो जाता है। अतः उसके संस्कार नहीं बनते , जिसने आत्मा को जान लिया, उसका संसार स्वयं छूट जाता है ,संसार छोड़ने से आत्म ज्ञान नहीं होता है, संन्यास लेना या देना जैसा कुछ भी नहीं होता हैं, यह विरक्ति और त्याग की ,मन की अवस्थाएँ हैं , अतः सन्यास कार्य नहीं अनुभूति है।

ज्ञान के सन्दर्भ में अष्टावक्र जी कहते हैं कि पुस्तकीय ज्ञान दूसरों का ज्ञान है तुम्हारा अपना नहीं . वह केवल विज्ञान है . ज्ञान तो स्वयं की अनुभूति का नाम है. देह मिली है जिसका अर्थ है प्रारब्ध और वासनाओं का व्यापार अभी शेष है . देह के सभी आवरण केवल भ्रांति हैं और भ्रांति का नाश केवल बोध से होता है . जो कुछ भी परिवर्तन शील है केवल भ्रांति हैं .


आत्मा पारमार्थिक सत्ता है शरीर नहीं . सृष्टि के इस मूल तत्त्व का नाम ही ब्रह्म है. इसी से जन्म इसी में लीन हो जाते हैं . यते वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यात्प्रन्त्याभिंस विशन्ति इति श्रुतेः,
जिस आत्म ब्रह्म से ये सब भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिस ब्रह्म की सत्ता से उत्पन्न होकर जीते हैं और
फिर मर कर जिसमें लय होते हैं. उसी को तुम अपना जानो. अष्टावक्र गीता सार को यदि एक वाक्य में
निरूपण किया जाए तो वह वाक्य है-

निर्जीव रहनी, निर्बीज करनी.

- डॉ. मृदुल कीर्ति   

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नोटः अष्टावक्र गीता बीस प्रकरणों में विभाजित है। ऊपर दिए लिंक्स के जरिए आप सीथे इच्छित प्रकरण पर जा सकते हैं।

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